मनुष्य के लिए आधारभूत पाँच आवश्यकताएँ निर्धारित हैं । भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य । अर्थात प्रत्येक व्यक्तिको और कुछ मिले या नमिले लेकिन ये चीजें उसे मिलनी ही चाहिए । राज्य और सरकार यदि पूर्णतया इस पर प्रतिबद्ध है तो वह प्रजातन्त्र है अन्यथा वह अभिजात तन्त्र, सैनिक तन्त्र कुछ भी हो सकता है ।
स्वास्थ्य का सवाल बहुत बडा है । इसमे बहुत सी व्यवस्थाएँ आती हैं और बडी लम्बी बहस और समीक्षा हो सकती है । वैसे तो भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों ने जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत सा काम किया है, और हो रहा है, नागरिक स्वास्थ्य और उपचार के लिए ग्राम स्तर तक स्वास्थ्य सेवाका विस्तार हुआ है , लेकिन यहाँ इनकी क्षमता, कार्य प्रणाली, और सेवा वितरण की प्रभावकारिता के बारे में लिखना नही है । यहाँ केवल उच्चस्तरीय ख्याति प्राप्त राष्ट्र्यि और अंतरराष्ट्र्यि स्तर के लेबल लगे हुए अस्पतालों के कुछ एक चिकित्सकों को ही लक्षित किया गया है । भारत में पटना, लखनऊ, राँची, गोरखपुर, बनारस, चंडीगढ, बंगलौर, भिल्लौर, मुम्बई और दिल्ली जैसे महानगरों में कई उच्चस्तरीय उपचार केन्द्र हैं । जिनमें कोई कोई तो बहुत ही प्रतिष्ठित माने जाते हैं और जहाँ स्वदेशी ही नही विदेशी रोगी भी बहुतायत संख्या में आते हैं ।
इनकी ख्याति किस कारण फैली और दूर दूर से लोग दौडे हुए क्यों चले आ रहे हैं ? यह प्रश्न स्वाभाविक है । क्या इन संस्थानों और चिकित्सकों नें शुरु से ही अपने संस्थानको इतना महँगा रखा कि यह सर्वसुलभ न बनें ,केवल विशिष्ट वर्ग के लोग ही इनमे प्रवेश करें जिनसे मुह माँगी रकम भी मिल जाय और साथ में इनको उच्च कोटिका संस्थान होनेका हौव्वा खडा हो जाय ? लेकिन इन सेवामूलक संस्थानो ने इस नीति से एैसी ख्याति आर्जित की होगी इस बात को मानने के लिए दिल तयार नही होता है । फिर तो एक ही बात रह जाती है कि इन्होने किसी समय में मानवीय मूल्यों को आधार पर रखकर बढ चढ कर चिकित्सा सेवा प्रदान की होगी जिससे आज भी इनके भवन तक गर्व से शिर उठाए खडे हैं । पटना और लखनऊ मेडिकल कालेज, पी जी आई लखनऊ और चंडीगढ, भिल्लौर, दिल्ली के अपोलो , कैलाश, स्काट और मेदान्त आदि कई प्रतिष्ठित चिकित्सा केन्द्र हैं ।
लेकिन लखनऊ के एक अस्पताल में एक महिला को, जिसके सीने में कभी कभी हल्का सा दर्द हो जाता था, उसे वरिष्ठ चिकित्सकों ने मास्कुलर पेन बताकर ६ वर्ष तक व्लडप्रेशर की दवा खिलाते रहे । और जब दिल पूरा व्लाकेज हो गया तब दिल्ली में इमरजेन्सी में आप्रेशन हुआ तब महिला बच पाई ।
चिकित्सा क्षेत्र के विभाग और उपचार से अनभिज्ञ ग्रामीण क्षेत्रका एक व्यक्ति पीठदर्द के लिए मेडिकल कालेज के विभागीय प्रमुख एक ख्याति प्राप्त न्यूरो सर्जन के क्लीनिक पर पहुँच गया । उन्होने उसे सम्बन्धित विशेषज्ञ के पास न भेजकर खुद ही इलाज में जुट गए और ५ महीने तक उलटी सीधी दवाइयाँ देते रहे। जब उसकी हालत खराब हुई तब किसी दूसरे डाक्टर ने बचाया । एैसे ही एक ग्रामीण को सीढी चढते वक्त साँस फूलने और नींद कम आने के इलाज के लिए किसी ने बहुत बडे प्रोफेसरका नाम बता दिया लेकिन वह पागलों के डाक्टर थे ।उन्होने उसकी हालत किगाड दी तब एक वैद्य ने बचाया ।
लखनऊ के एक बहुत बडे नाम कमाए हुए महँगी फीस वाले प्रोफेसर ने दस्तों से परेशान रहने वाले एक रोगीको बताया कि उसकी आँतें सीधी हो जाने के कारण स्थायी इलाज संभव नही है । जितने दिन जीवन है उतने दिन तक कुछ आराम के लिए दवाएँ खाते रहना है । जिससे रोगी नितान्त हतोत्साहित हो गया उसे गुरकुल कागडी के एक वैद्य ने केवल २५ रुपये की देशी दवा से तीन दिन में पूर्ण स्वस्थ कर दिया और प्रोफेसरको तमाम गालियाँ बक डाली । कूल्हे और कमर की दर्द से छटपटाती हुई एक महिलाको लखनऊ के एक अस्पताल के डाक्टर ने दर्दनाशक कुछ एैसी दवाएँ दीं कि १०, १२ दिन में उनका लीवर डैमेज हो गया और वहीं पर मृत्यु हो गई । लखनऊ के ही एक प्रतिष्ठित अस्पताल के डाक्टर ने एक नवयुवक के पैर के तलवे में शिष्ट जैसी एक छोटी सी गाँठ को अपने क्लीनिक मे ले जाकर आप्रेशन किया कुछ महीने बाद उसे कैंसर हो गया और वह मर गया । दूरस्थ प्रदेश से आई हुई एक रोगी की दिल्ली में बाईपास सर्जरी हुई और एक वरिष्ठ फिजीसियन वर्षों तक दैनिक १०,१२ दवाएं देते रहे पूरा दिन दवाओं के फेर मे बीतता रहा परिणामस्वरुप कई स्वास्थ्य समस्याएँ दिखाई पडीं और दूसरे चिकित्सकों ने जब चेकअप करवाया तो परिणाम यह निकला कि अनावश्यक दवाओं के अन्धाधुन्ध सेवन करने से काफी परेशानियाँ पैदा हो गई हैं ।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के एक डाक्टर जिनका क्लीनिक प्रायःरात के १० बजे शुरु होता है, इन्होने एक रोगी के व्लड टेष्ट में जिसमे हेमोग्लोबीन १२.५ और आइरन आवश्यक मात्रा से थोडा सा कम था, उसे २५०० रुपये की आइरन सुई तुरन्त लगवाने को कहा। रोगी के अभिभावक ने जब अपने पास उस समय पैसा नहोने की और रात के १२ बज जाने के कारण कल उनसे अस्पताल में मिलकर सुई लगवाने की बात की तो उन्होने पर्चा फेंकते हुए दुबारा नआनेको कहकर भगा दिया ।
यह कुछ प्रतिनिधि उदाहरण हैं । लेखक एक एैसे तबके से जुडा है कि इन्ही अस्पतालों की बात नही है अन्य कतिपय बडे अस्पताल और नामी गरामी डाक्टरों के कारनामे देखने सुनने को मिलता रहता है । हो सकता है कि बडे अस्पतालों मे इस तरह के इक्का दुक्का डाक्टर ही हाें, लेकिन एक मछली सारे तालाब को गन्दा जरुर कर देती है फिर भी समस्त डाक्टरों पर एक साथ आरोप नही मढा जा सकता है तो भी अस्पतालों के नाम पर जरुर उँगलियाँ उठ जाती हैं । नाम बदनाम हो ही जाता है ।
देश के उदाहरणीय वे अस्पताल, जहाँ की प्रविधि और व्यवस्थाएँ अति उच्च मानी जाती हैं, जहाँ का खर्च उच्च वर्ग ही वहन कर सकता है या मुश्किल से मध्यम वर्ग खर्च का बोझ ढोता है । न्यून आयका सर्व साधारण रोगी उधर मुह करके खडा भी नही होता है, जहाँ “पैसा दो–सेवा लो ” का नियम हो एैसे संस्थान में कार्यरत कुछ चिकित्सक संस्थान की मर्यादा और आचार संहिता तथा नैतिकता को तिलांजली देकर केवल पैसा बटोरना ही जीवन का चरम लक्ष्य क्यों बना लेते हैं ? आपे्रशन सफल असफल जो भी हो,किडनी ट्रन्सप्लांट तक धडल्ले से क्यों कर डालते हैं ?
रोगी का रोग बेकाबू हो गया हो तो भी उसे इलाज में क्यों घसीट लेते हैं ? अपने अस्पताल को रोगी संकलन एवं सम्पर्क केन्द्र के रुप में उपयोग करके रोगियों को अपने क्लीनिक पर बुलाना, अस्पताल से ड्योढा दूना फीस लेना, विश्वसनीय –अविश्वसनीय अनुसंधान केन्द्र और लैब पर भेजकर दूना चौगुना टेस्ट खर्च करवाना या खुद ही टेस्ट करना , और दवा कम्पनी के एजेन्ट के तरकिे से दवा से झोला भर देना और एैसी दवाएं लिखना कि सारी दवाएँ इकट्ठी केवल उन्ही के पास मिलें ।
कुछ डाक्टर यह तर्क देने लगते हैं कि २, ३ प्रतिशत रोगी भले ही ठीक न होते हाें पर बाकी तो ठीक हो ही जाते हैं । तो मेरा उन डाक्टरों से कहना है कि जो रोगी २, ३ प्रतिशत के अन्दर पड गया और मर गया तो आप की ९७ प्रतिशत सफलता से उसे क्या लेना देना है ? फिर तो आप के और छोटे चिकित्सकों के बीच तात्विक अन्तर ही क्या रहा ? जब रोग आप की समझ से या काबू से बाहर हो तो भी आप उसपर क्यो लगे रहते हैं, हमेशा आप्रेशन करने को उत्सुक क्यों रहते हैं ?
चिकित्सक के ये कारनामे यद्धपि अपराध हैं और कार्रवाई करने पर हो सकता है कि कानून कुछ करे भी । लेकिन जो रोगी इलाज करवाने जाता है, डाक्टर की सलाह आँख मूँद कर मानता है और आवश्यक–अनावश्यक टेस्ट और दवाइयाँ बटोरता है।
वह मरीज यदि और परेशान हो जाता है तो वह पागल की तरह अस्पताल का चक्कर लगाए, कि थाना कोर्ट कचेहरी वकील और कानून को गले लगाने दौडे ? नमालुम किस गाँव शहर से आया हुआ व्यक्ति रोग और रोगी देखे कि कानून ढूढे ? वह आ बैल मुझे मार वाला काम क्यों करेगा ? चिकित्सक से झगडा क्यों मोल लेता फिरेगा ? शायद इस बात को वे दुष्प्रवृत्तिवाले डाक्टर भी जानते हैं तभी तो अंधाधुंध काम करने से नही डरते हैं । लेकिन यदि कोई रोगी एैसे डाक्टर के विरुद्ध कार्रवाई नही करता है तो क्या सम्बन्धित अस्पताल प्रशासन और सरकार का दायित्व भी खतम हो जाता है ? मूल प्रश्न यह है ।
अब एैसा लगता है कि इन उच्च संस्थानों को दक्ष और कार्य कुशल तथा नैतिकवान चरित्रवान चिकित्सक उपलव्ध होने में कुछ कठिनाइयाँ हाेंगी ।तब जो भी मिले उसे ही ठीक मानकर “तुम भी कमाओ संस्थान भी कमाए” वाली नीति अपनाते हैं, या तो चिकित्सकों के चयन में सोर्स, सिफारिस और अवांछनीय तत्व जाने अनजाने प्रवेश पा जाते हैं इस लिए अन्य प्रवृत्ति के डाक्टर भी नियुक्त हो जाते हैं । कुछ गडबड जरुर हो जाती होगी । और मान लो एक दो एैसे डाक्टर यदि संस्थान में आ भी गए हैं तो मैनेजमेंट डाक्टरों को निग्रानी में रखता है कि नही ? यदि हाँ ,तो उनके ऊपर कोई कार्रवाई भी होती है ? और यदि निगरानी मे नही रखा जाता है तो क्यो ? इसका भी जवाब तो अस्पताल प्रशासन को ही देना चाहिए ।
कुछ भी हो यह बडे अस्पताल भले ही पैसा कमाने के उद्द््ेश्य से खुले हों लेकिन इसके पीछे नैतिकता और विश्वास का बल होता है । रोगी अस्पताल के नाम पर श्रद्धा और डाक्टर के ऊपर हृदय से विश्वास करता है तो अस्पताल प्रशासन का भी कानूनी और नैतिक दायित्व बनता है कि वह डाक्टरों पर, उनके काम व्यवहार, चिकित्सा, पद्धति, प्रक्रिया,समय पालन और नियमितता और उनके आय पर निगरानी रखे । उन्हें चिकित्सकीय अनुशासन में तो रखना ही चाहिए । विवेकी लोग यह जानते हैं कि चिकित्सा पेशा बडा ही अनमोल पेशा है । इसमे आम के आम गुठलियों के भी दाम मिलते हैं । चूँकि इस पेशा के साथ साथ सेवा भी है इस लिए जो चिकित्सक तन मन से सेवाको प्रार्थमिकता देता है उसकी सोहरत तो बढती ही है साथ साथ धनका भी ढ्ेर लगता है । उसका व्यवसाय आजीवन चलता है और जो धन को प्रार्थमिकता देता है वह बदनाम तो होगा ही साथ ही वक्त पडने पर उसका साथी कोई नही होता है । और धन तो चन्चल है ही वह भला कब तक रुकेगा ।
जो रोगी या अभिभावक किसी उँचे अस्पताल को ऊँची फीस, टेस्ट और दवा अथवा सर्जरी आदि की मुहमाँगी रकम दे रहा हो, उसको इन संस्थानो के तरफ से रोगी के सर्वाेत्तम हित मेंत्रुटिहीन,शंकारहित,विश्वस्त,गुणस्तरीय और परिणाममुखी सेवा प्राप्त करने का अधिकार भी तो होता है और एैसी सेवा प्रदान करना इन संस्थानों का दायित्व है ।
यदि इतना अधिक खर्च करने पर भी ये अस्पताल उल्टे सीधे परिक्षण और अनुमान के आधार पर अंधाधुंध दवा करते हैं, गुणस्तरीय सेवा नही देते हैं, रोगी का अहित होता है तो इनसे अच्छे तो वो झोलाछाप डाक्टर हैं जो रोग भले ही ठीक न कर सकें लेकिन इतना खर्च तो नही कराते हैं ।
अब तो सामान्यतया यह दिख रहा है कि जिसके पास पैसा नही है वह रोग लगने पर कुछ दिन बाद खुद ही ठीक हो जाएगा या अपनी मौत मर जाएगा, जो थोडा खर्च कर सकता है वह झोला डाक्टर या सरकारी अस्पताल आदि छोटी जगहों पर थोडा सा इलाज करवा लेगा और ठीक हो जायगा या मर जायगा लेकिन जिसकी खर्च की कुछ सामथ्र्य है वह बडे अस्पतालों में एैसे डाक्टरों के दवाओं से पेट भरता रहता है, अनावश्यक दवाएँ खाता रहता है, और यदि उसका समय आ भी गया हो तो डाक्टरों की खीचातानी और अफरातफरी में वह शान्तिपूर्वक मरने भी नही पाता है । अंत में रोग, रोगी और घर की सम्पति स्वाहा हो जाती है । दवा नपाकर कम ही रोगी मरते हैं लेकिन दवा खाकर ज्यादा रोगी मरते हैं । क्या यह बात गलत है ? यदि यह बात गलत है तो बडे अस्पतालों को इस बात को गलत साबित करने में निरंतर लगे रहना चाहिए । अनावश्यक टेस्ट और दवाओं के अतिशय प्रयोग से रोगी का अहित न हो , रोगी डाक्टरों के माया नगरी का खर्च का उत्तम श्रोत नबने , सेवा प्रथम और धनोपार्जन द्धित्तीय लक्ष्य हो यह उपक्रम सभी अस्पतालो को , कमसेकम बडे और महँगे प्राइवेट अस्पतालो को करना ही चाहिए और किया हुआ उपक्रम प्रत्यक्ष दिखना भी चाहिए , तभी आधारभूत आवशयकताओं की परिपूर्ति मे यह बडे और नामी प्रतिष्ठान सहयोगी बन पाएँगे अन्यथा यह अस्पताल भी उपचार उद्योग ही कहे जाएंगे ।